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Showing posts from October, 2017

निबन्ध

निबन्ध निबन्ध (Essay) गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबंध के पर्याय रूप में संदर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबंध ही है। इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है। इतिहास-बोध परम्परा की रूढ़ियों से मनुष्य के व्यक्तित्व को मुक्त करता है। निबंध की विधा का संबंध इसी इतिहास-बोध से है। यही कारण है कि निबंध की प्रधान विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन है। निबंध की सबसे अच्छी परिभाषा है- "निबंध, लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य-रचना है।" इस प

छंद

छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्याय से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है। छंद के अंग छंद के अंग निम्नलिखित हैं? चरण/ पद/ पाद वर्ण और मात्रा संख्या और क्रम गण गति यति/ विराम तुक 1.चरण/ पद/ पाद छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। दूसरे शब्दों में छंद के चतुर्थांश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं। कुछ छंदों में चरण तो चार होते हैं लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठ आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को 'दल' कहते हैं। हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छ

अलंकार

काव्य में भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजन ढंग को अलंकार कहते हैं। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है, 'आभूषण'। जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य अलंकारों से काव्य की। संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में 'काव्य' शोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते' - काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं। हिन्दी के कवि केशवदास एक अलंकारवादी हैं। भेद अलंकार को दो भागों में विभाजित किया गया है:- शब्दालंकार- शब्द पर आश्रित अलंकार अर्थालंकार- अर्थ पर आश्रित अलंकार आधुनिक/पाश्चात्य अलंकार- आधुनिक काल में पाश्चात्य साहित्य से आये अलंकार 1.शब्दालंकार शब्दालंकार जहाँ शब्दों के प्रयोग से सौंदर्य में वृद्धि होती है और काव्य में चमत्कार आ जाता है, वहाँ शब्दालंकार माना जाता है। प्रकार अनुप्रास अलंकार यमक अलंकार श्लेष अलंकार 2.अर्थालंकार अर्थालंकार जहाँ शब्दों के अर्थ से चमत्कार स्पष्ट हो, वहाँ अर्थालंकार माना जाता है। प्रकार उपमा अलंकार रूपक

पर्यायवाची शब्द

पर्यायवाची शब्द किसी शब्द-विशेष के लिए प्रयुक्त समानार्थक शब्दों को पर्यायवाची शब्द कहते हैं। यद्यपि पर्यायवाची शब्द समानार्थी होते हैं किन्तु भाव में एक-दूसरे से किंचित भिन्न होते हैं। •अमृत- सुधा, सोम, पीयूष, अमिय। •असुर- राक्षस, दैत्य, दानव, निशाचर। •अग्नि- आग, अनल, पावक, वह्नि। •अश्व- घोड़ा, हय, तुरंग, बाजी। •आकाश- गगन, नभ, आसमान, व्योम, अंबर। •आँख- नेत्र, दृग, नयन, लोचन। •अहंकार- दंभ, गर्व, अभिमान, दर्प, मद, घमंड। •अमृत- सुधा, अमिय, पीयूष, सोम, मधु, अमी। •असुर- दैत्य, दानव, राक्षस, निशाचर, रजनीचर, दनुज, रात्रिचर। •अतिथि- मेहमान, अभ्यागत, आगन्तुक, पाहूना। •अनुपम- अपूर्व, अतुल, अनोखा, अदभुत, अनन्य। •अर्थ- धन्, द्रव्य, मुद्रा, दौलत, वित्त, पैसा। •अश्व- हय, तुरंग, बाजी, घोड़ा, घोटक। •अंधकार- तम, तिमिर, तमिस्र, अँधेरा। •आम- रसाल, आम्र, सौरभ, मादक, अमृतफल, सहुकार। •आग- अग्नि, अनल, हुतासन, पावक, दहन, ज्वलन, धूमकेतु, कृशानु, वहनि, शिखी, वह्नि। •आँख- लोचन, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि। •आकाश- नभ, गगन, अम्बर, व्योम, अनन्त, आसमान, अंतरि