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हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास

हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास=
राष्ट्रभाषा क्या है=
राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ हैकृसमस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जनदृजन के विचारदृविनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तत्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिंदी ने की। यही कारण है कि हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरानख्4, राष्ट्रभाषा बनी।
राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कदृभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
अंग्रेजों का योगदान=
राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिंदी दीर्घकाल से सारे देश में जनदृजन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिंदी भाषी राज्यों के भक्तदृसंत कवियों (जैसेकृअसम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्नदृभिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा।
सी. टी. मेटकाफ ने 1806 ई. में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखाकृ श्भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।
टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखाकृ श्जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबीदृफारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।
विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखाकृ श्हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।
एच. टी. कोलब्रुक ने लिखाकृ श्जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़ेदृलिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।
जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को श्आम बोलचाल की महाभाषाश् कहा है।
इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिंदी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिंदी को अपनाया। उस समय हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेजों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।धर्मध्समाज सुधारकों का योगदान=धर्मध्समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिंदी के महत्त्व को भाँपा और हिंदी की हिमायत की।ब्रह्म समाज (1828 ई.) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा, इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई. में एक लेख लिखा, भारतीय एकता कैसे हो, श्जिसमें उन्होंने लिखाकृ उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिंदी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिंदी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
आर्य समाज (1875 ई.) के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस श्आर्यभाषाश् को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, श्मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष की सलाह थी कि श्लोग अपनीदृअपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें।
थियोसोफिकल सोसाइटी (1875 ई.) की संचालिका एनी बेसेंट ने कहा था, ष्भारतवर्ष के भिन्नदृभिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।
उपर्युक्त धार्मिकध्सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाजख्5,, सनातन धर्म सभाख्6,, रामकृष्ण मिशनख्7, आदि ने हिंदी के प्रचार में योग दिया।
इससे लगता है कि धर्मध्समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिंदी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ इस भाषा में ही विचारों का आदानदृप्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्मध्समाज सुधारकों ने किया।
ख्सम्पादन,कांग्रेस के नेताओं का योगदान
1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसेदृजैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया, वैसेदृवैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
1917 ई. में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा, ष्यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।ष् तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें।
महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, ष्राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।ष् गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थेकृ ष्हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।ष् उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषादृसमस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई. में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,
राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए=
अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार होना चाहिए।
राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए।
वर्ष 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन किया, ष्मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।ष् इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई.) एवं वर्धा (1936 ई.) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।
वर्ष 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि श्कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का कामदृकाज आमतौर पर हिंदी में चलाया जाएगा।श् इस प्रस्ताव में हिंदीदृआंदोलन को बड़ा बल मिला।
वर्ष 1927 ई. में गाँधीजी ने लिखा, ष्वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलने वाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिंदी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिंदी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
वर्ष 1927 ई. में सी. राजगोपालाचारी ने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की सलाह दी और कहा, ष्हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।
वर्ष 1928 ई. में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफारिश में कहा गया था, ष्देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेजी का उपयोग जारी रहेगा।ष् सिवाय श्देवनागरी या फारसीश् की जगह श्देवनागरीश् तथा श्हिन्दुस्तानीश् की जगह श्हिंदीश् रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
वर्ष 1929 ई. में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, ष्प्रान्तीय ईर्ष्यादृद्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।
वर्ष 1931 ई. में गाँधीजी ने लिखा, ष्यदि स्वराज्य अंगेजीदृपढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है।ष् गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
वर्ष 1936 ई. में गाँधीजी ने कहा, ष्अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।
वर्ष 1937 ई. में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिंदी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
जैसेदृजैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसेदृवैसे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चैथे दशक तक हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओतदृप्रोत जितनी रचनाएँ हिंदी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिंदी आंदोलन) से सम्बन्धित धार्मिकदृसामाजिक संस्थाएँ=
नाम=मुख्यालय=स्थापना=संस्थापक=
ब्रह्म समाज=कलकत्ता=1828 ई.=राजा राममोहन राय
प्रार्थना समाज=बंबई=1867 ई.=आत्मारंग पाण्डुरंग
आर्य समाज=बंबई=1875 ई.=दयानन्द सरस्वती
थियोसॉफिकल सोसायटी=अडयार, चेन्नई=1882 ई.=कर्नल एच.एस.आल्काट एवं मैडम एच.पी.ब्लैवेत्स्की
सनातन धर्म सभा=वाराणसी=1895 ई.=पं. दीनदयाल शर्मा
(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन=बेलूर=1897 ई.=विवेकानंद
राष्ट्रभाषा आंदोलन से सम्बन्धित साहित्यिक संस्थाएँ=
नाम=मुख्यालय=स्थापना=
नागरी प्रचारिणी सभा=वाराणसी=1893 ई. (संस्थापक-त्रयीकृश्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र व शिवकुमार सिंह)
हिंदी साहित्य सम्मेलन=प्रयाग=1910 ई. (प्रथम सभापतिदृ मदन मोहन मालवीय)
गुजरात विद्यापीठ=अहमदाबाद=1920 ई.
हिन्दुस्तानी एकेडमी=इलाहाबाद=1927 ई.
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (पूर्व नाम- हिंदी साहित्य सम्मेलन)=चेन्नई=1927 ई.
हिंदी विद्यापीठ=देवघर=1929 ई.
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति=वर्धा=1936 ई.
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा=पुणे=1937 ई.
बंबई हिंदी विद्यापीठ=बंबई=1938 ई.=
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति=गुवाहाटी=1938 ई.=
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना=पटना=1951 ई.=
अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ=1964 ई.=
नागरी लिपि परिषद=नई दिल्ली=1975 ई.
राष्ट्रभाषा आंदोलन से सम्बन्धित व्यक्तित्व=
*
बंगाल=
हिंदी के लिए महापुरुष कथन
हिंदी किसी के मिटाने से मिट नहीं सकती।
=चन्द्रबली पाण्डेय
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी।
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी ॥
=मैथिलीशरण गुप्त
*
जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो वह अवश्य ही पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा नहीं ठहर सकती।
=महात्मा गाँधी
हिंदी भारतवर्ष के हृदय-देश स्थित करोड़ों नर-नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है।
=हजारीप्रसाद द्विवेदी
हिंदी को गंगा नहीं बल्कि समुद्र बनना होगा।
=विनोबा भावे
हिंदी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।
=सुभाष चन्द्र बसु
हिंदी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं।
=हजारीप्रसाद द्विवेदी
राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, नवीन चंद्र राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, तरुणी चरण मिश्र, राजेन्द्र लाल मित्र, राज नारायण बसु, भूदेव मुखर्जी, बंकिम चंद्र चैटर्जी (श्हिंदी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के मध्य में जो ऐक्यबंधन संस्थापन करने में समर्थ होंगे वही सच्चे भारतबंधु पुकारे जाने योग्य हैं।)श्, सुभाषचंद्र बोस (श्अगर आज हिंदी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रान्त विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।श्) रवीन्द्रनाथ टैगोर (श्यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में इस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूदृभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधीजी ने हम लोगों से की है।श्) रामानंद चटर्जी, सरोजिनी नायडू, शारदा चरण मित्र, आचार्य क्षिति मोहन सेन (श्हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ।श्) आदि।
*
महाराष्ट्र=
बाल गंगाधर तिलक (यह आंदोलन उत्तर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं एक राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्त्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एकदृदूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।श्), एन. सी. केलकर, डॉ. भण्डारकर, वी. डी. सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका कालेलकर आदि।
*
पंजाब=
लाला लाजपत राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी आदि।
*
गुजरात=
दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (श्हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है, वह तो है ही।श्) आदि।
*
दक्षिण भारत=
सी. राजगोपालाचारी, टी. विजयराघवाचार्य (श्हिन्दुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिंदी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दिखाई पड़ती है।),
सी. पी. रामास्वामी अय्यर (श्देश के विभिन्न भागों के निवासियों के व्यवहार के लिए सर्वसुगम और व्यापक तथा एकता स्थापित करने के साधन के रूप में हिंदी का ज्ञान आवश्यक है।)
अनन्त शयनम आयगर (श्हिंदी ही उत्तर और दक्षिण को जोड़ने वाली समर्थ भाषा है।)
एस. निजलिंगप्पा (श्दक्षिण की भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेनदृदेन किया है, इसलिए उसी परम्परा में आई हुई हिंदी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने के लायक है।)
रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर (श्जो राष्ट्रप्रेमी है, उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना चाहिए।)
के. टी. भाष्यम, आर. वेंकटराम शास्त्री, एन. सुन्दरैया आदि।
अन्य मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन (श्हिंदी का प्रहरीश्), राजेन्द्र प्रसाद, सेठ गोविन्द दास आदि।
**************
महात्मा गाँधी के विचार=
श्करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी।,
अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पाँव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है।ष् भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान अर्जित करने पर कम से कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं। यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें, तो फिर और क्या हो सकता है। (1914)
जीस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अत्यन्त पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकतीश्। (1916)हिंदी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है, यह बात निर्विवाद सिद्ध है। जिस स्थान को अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असम्भव है, वही स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, क्योंकि हिंदी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजी को नहीं मिल सकता, क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है। (1917)
हिंदी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिंदी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी हैश। (1918)
हिंदी और उर्दू नदियाँ हैं और हिन्दुस्तानी सागर है। हिंदी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ना नहीं चाहिए। दोनों का मुक़ाबला तो अंग्रेजी से है।
अंग्रेजों के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है।
यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता तो) आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने पर मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्ख़ास्त कर देता। मैं पाठ्यदृपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने आप ही चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरन्त ही इलाज होना चाहिए।
श्मेरी मातृभाषा में कितनी ही ख़ामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह से चिपटा रहूँगा, जिस तरह से बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है, जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख़्त नफरत करूँगा। वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखोंदृकरोड़ों की नहीं।
श्लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी।

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