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हिंदी भाषा का विकास [Part-1]

हिंदी भाषा का विकास=

हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय-
आर्य भाषा है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
सन् 1997 में भारत की जनगणना का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् 1998 में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है।
चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है। अँगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु मातृभाषियों की संख्या अँगरेजी भाषियों से अधिक है। इसकी कुछ बोलियाँ, मैथिली और राजस्थानी अलग भाषा होने का दावा करती हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमांऊनी, मागधी और मारवाड़ी भाषा शामिल हैं।हिंदी भाषा का विकास-
वर्गीकरण-
हिंदी विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
आकृति या रूप के आधार पर हिंदी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
भाषादृपरिवार के आधार पर हिंदी भारोपीय परिवार की भाषा है।
भारत में 4 भाषादृपरिवारकृ भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनीदृतिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है।
हिंदी भारोपीयध् भारत यूरोपीय के भारतीयदृ ईरानी शाखा के भारतीय आर्य (प्दकवदृ।तलंद) उपशाखा से विकसित एक भाषा है।
भारतीय आर्यभाषा को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।
भारत में 4 भाषादृपरिवार
भाषा-परिवारभारत में बोलने वालों का:
भारोपीय=73%
द्रविड़=25%
आस्ट्रिक=1.3%
चीनीदृतिब्बती=0.7%
भारतीय आर्यभाषा को तीन काल=
नाम=प्रयोग काल=उदाहरण
1.प्राचीन भारतीय आर्यभाषा=1500 ई. पू.दृ 500 ई. पू.=वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत
2.मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा=500 ई. पू.दृ 1000 ई.
=पालि, प्राकृत, अपभ्रंश
3.आधुनिक भारतीय आर्यभाषा=1000 ई.दृ अब तक=हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ दृ बांग्ला, उड़िया, मराठी,सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि।
1.प्राचीन भारतीय आर्यभाषा=
नाम=प्रयोग काल=अन्य नाम=
वैदिक संस्कृत=1500 ई. पू.दृ 1000 ई. पू.=छान्दस् (यास्क, पाणिनि)
लौकिक संस्कृत=1000 ई. पू.- 500 ई. पू.=संस्कृत भाषा (पाणिनि)
2.मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा=
नाम=प्रयोग काल=विशेष टिप्पणी=
प्रथम प्राकृत कालदृ पालि500 ई. पू.दृ 1 ई.=भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं।
द्वितीय प्राकृत कालदृ प्राकृत1 ई.दृ 500 ई.=भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं।
तृतीय प्राकृत कालदृ अपभ्रंश अवहट्ट500 ई.दृ 1000 ई.=
900 ई. दृ 1100 ई.
=संक्रमणकालीनध्संक्रान्तिकालीन भाषा=
3.आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (हिन्दी)=
नाम=प्रयोग काल=
प्राचीन हिन्दी=1100 ई. दृ 1400 ई.
मध्यकालीन हिन्दी=1400 ई. - 1850 ई.
आधुनिक हिन्दी=1850 ई. दृ अब तक
हिंदी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीनध्प्रारम्भिक हिंदी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिंदी भाषा के इतिहास का आरम्भ अपभ्रंश से माना जाता है।
हिंदी का विकास क्रम- संस्कृत→ पालि→ प्राकृत→ अपभ्रंश→ अवहट्ट→ प्राचीन ध् प्रारम्भिक हिंदी=
अपभ्रंश=
अपभ्रंश भाषा=
अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई. से लेकर 1000 ई. के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ 8वीं सदी ई. (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा। अपभ्रंश (अप़भ्रंश़घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है श्पतनश्, किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट हैकृ प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
प्रमुख रचनाकार-
स्वयंभूकृ अपभ्रंश का वाल्मीकि (श्पउम चरिउश् अर्थात् राम काव्य), धनपाल (श्भविस्सयत कहाश्दृअपभ्रंश का पहला प्रबन्ध काव्य), पुष्पदंत (श्महापुराणश्, श्जसहर चरिउश्), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ (श्चरिया पदश्, श्दोहाकोशीश्) आदि।
अवहट्ट=
अवहट्ट भाषा=
अवहट्ट श्अपभ्रंष्टश् शब्द का विकृत रूप है। इसे श्अपभ्रंश का अपभ्रंशश् या श्परवर्ती अपभ्रंशश् कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीनध्संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई. से 1100 ई. तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है। अब्दुर रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को श्अवहट्टश् या श्अवहट्ठश् कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं। देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठा कहा जाता है।
प्रमुख रचनाकार-
अद्दहमाणध्अब्दुर रहमान (श्संनेह रासयश्ध्श्संदेश रासकश्), दामोदर पंडित (श्उक्तिदृव्यक्तिदृप्रकरणश्), ज्योतिरीश्वर ठाकुर (श्वर्ण रत्नाकरश्), विद्यापति (श्कीर्तिलताश्) आदि।
प्राचीन हिंदी=
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास=
शौरसेनी=पश्चिमी हिंदी=
राजस्थानी=
गुजराती=
अर्द्धमागधी=पूर्वी हिंदी
मागधी=बिहारी
उड़िया=
बांग्ला=
असमिया=
खस=पहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
ब्राचड़=पंजाबी(शौरसेनी से प्रभावित)
सिंधी=
महाराष्ट्री=मराठी
मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिंदी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
प्राचीन हिंदी से अभिप्राय हैकृ अपभ्रंशदृ अवहट्ट के बाद की भाषा।
हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंशदृअवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति=
हिंदी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तरदृपश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तरदृपश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह श्सिंधुश् का देश था। ईरान (फारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी श्सिंधुश् को श्हिन्दुश् कहते थे। (सिंधु - हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन - पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्दू शब्द संस्कृत से प्रचलित है परंतु यह संस्कृत के श्सिन्धुश् शब्द से विकसित है। हिन्दू से श्हिन्दश् बना और फिर श्हिन्दश् में फारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय श्ईश् लगने से श्हिंदीश् बन गया। श्हिंदीश् का अर्थ हैकृश्हिन्द काश्। इस प्रकार हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द श्हिंदी की भाषाश् के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं.
श्हिंदीश् शब्द का विकास कई चरणों में हुआ- सिंधु→ हिन्दु→ हिन्द़ई→ हिंदी। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने अपने “हिन्दी-उर्दू का अद्वैत” शीर्षक आलेख में विस्तार से स्पष्ट किया है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में “स्” ध्वनि नहीं बोली जाती थी। अवेस्ता में “स्” का उच्चारण “ह्” किया जाता था। उदाहरण के लिए संस्कृत के असुर शब्द का उच्चारण अहुर किया जाता था। अफगानिस्तान के बाद की सिन्धु नदी के पार के हिन्दुस्तान के इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में “हिन्द” एवं “हिन्दुश” के नामों से पुकारा गया है। “हिन्द” के भूभाग की किसी भी वस्तु, भाषा तथा विचार के लिए विशेषण के रूप में “हिन्दीक” का प्रयोग होता था। हिन्दीक माने हिन्द का या हिन्द की। यही हिन्दीक शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में “इंदिका” तथा “इंदिके” हो गया। ग्रीक से लैटिन में यह “इंदिया” तथा लैटिन से अंग्रेजी में “इंडिया” शब्द रूप बन गए। यही कारण है कि अरबी एवं फारसी साहित्य में “हिन्द” में बोली जाने वाली जबानों के लिए “जबान-ए-हिन्द” लफ्ज मिलता है। भारत में आने के बाद मुसलमानों ने “जबान-ए-हिन्दी” का प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा के लिए किया। “जबान-ए-हिन्दी” माने हिन्द में बोली जाने वाली जबान। इस इलाके के गैर-मुस्लिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप को “भाखा” कहते थे, हिन्दी नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध पंक्ति है दृ संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।श्हिंदीश् शब्द मूलतः फारसी का है न कि श्हिंदीश् भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिंदी प्रेमी श्हिंदीश् शब्द की व्युत्पत्ति हिंदी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे - हिन (हनन करने वाला) ़ दु (दुष्ट)= हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा श्हिंदीश्य हीन (हीनों)़दु (दलन)= हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा श्हिंदीश्। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
श्हिंदीश् शब्द के दो अर्थ हैंकृ श्हिन्द देश के निवासीश् (यथाकृ हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमाराकृ इक़बाल) और श्हिंदी की भाषाश्। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिंदी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब श्हिंदीश् शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब श्हिंदीश् नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी श्हिन्दश् की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल श्हिंदीश् नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए श्हिंदीश् की इन सब भाषाओं के लिए श्हिंदीश् शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। हिंदीश् शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिंदी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिंदी प्रदेशध्क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।ब्रजभाषा- प्राचीन हिंदी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंशदृअवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंशदृअवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का श्प्रद्युम्न चरितश् (1354 ई.) है।
अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की श्चंद्रायनश् या श्लोरकहाश् (1370 ई.) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
खड़ी बोली- प्राचीन हिंदी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है।
इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंशदृअवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिंदी=
मध्यकाल में हिंदी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आएकृ ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली।
ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली।
भारत में हिंदी भाषी क्षेत्र=
ब्रजभाषा=
ब्रजभाषा=
हिंदी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिंदी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्गध्शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधावल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदायदृनिरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया।
इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें श्अष्टछाप का जहाजश् कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलिकृबंगाल में कृष्णभक्त कवियों के द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)
अवधी=
अवधी भाषा=
अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफीध्प्रेममार्गी कवियों को है। कुतबन (श्मृगावतीश्), जायसी (श्पद्मावतश्), मंझन (श्मधुमालतीश्), आलम (श्माधवानल कामकंदलाश्), उसमान (श्चित्रावलीश्), नूर मुहम्मद (श्इन्द्रावतीश्), कासिमशाह (श्हंस जवाहिरश्), शेख निसार (श्यूसुफ जुलेखाश्), अलीशाह (श्प्रेम चिंगारीश्) आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की।
इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने श्रामचरितमानसश् की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप है। (गोहारीध्गोयारीकृ बंगाल में सूफियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
खड़ी बोली=
खड़ी बोली=
मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गएकृ उत्तरी हिंदी व दक्कनी हिंदी।
खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतोंय गंग की श्चन्द छन्द वर्णन की महिमाश्, रहीम के श्मदनाष्टकश्, आलम के श्सुदामा चरितश्, जटमल की श्गोरा बादल की कथाश्, वली, सौदा, इन्शा, नजीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, श्कुतुबशतमश् (17वीं सदी), श्भोगलू पुराणश् (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के श्कुलजमस्वरूपश् आदि में मिलता है।

Comments

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उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद

उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार भेद हैं- 1. तत्सम- जो शब्द संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि। 2. तद्भव- जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि। 3. देशज- जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि। 4. विदेशी या विदेशज- विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची,अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है। अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल आदि। फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि। अरबी- औलाद,

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